शिक्षक, गुरु और ईश्वर, समर्पण और संशय।

विषय जब तन मन धन समर्पण का हो तो कुछ संशय दूर करना अनिवार्य हैं।

हम सब के जीवन में शिक्षक गुरु और ईश्वर का महत्वपूर्ण स्थान है, और हम सबने एक विद्यार्थी, शिष्य और भक्त की भूमिका निभाई है।

शिक्षक और विद्यार्थी का रिश्ता, पारितोषिक और पुरुस्कार का रिश्ता है।

गुरु और शिष्य का रिश्ता, दीक्षा और दक्षिणा का रिश्ता है।

भक्त और भगवान का रिश्ता भेंट और प्रशाद का रिश्ता है।

शिक्षा जो शिक्षक देता है वो हमें, जीवन के लिए आवश्यक भौतिक सुख सुविधा और वस्तु प्रदान करती है।

वहीं जीवन में जीवन मूल्य प्रदान करने वाला और जीवन लक्ष्य का मार्ग प्रशस्त करने वाला गुरु होता।

और जीवन लक्ष्य और लक्ष्य प्रदान करने वाला ईश्वर/भगवान होता है।

माता पिता को प्रथम गुरु और जीवन्त भगवान का स्थान तो, वहीं गुरु को भगवान से भी ऊंचा स्थान दिया गया है।

परन्तु हम से शिक्षक को गुरु और गुरु को भगवान समझने की भूल हमें पथभ्रष्ट कर रही है।

सनातन हिन्दू धर्म में व्यक्ति पूजन का कोई स्थान नहीं है।

हमारे पूजनीय ईश्वर स्वरूप माता पिता और गोविंद से मिलाने वाले गुरु को प्रथम वन्दन(प्रणाम) तो अवश्य बनता है।

परन्तु उन्हें उनके स्थान या बराबर बिठाने का प्रावधान सनातन हिन्दू धर्म में नहीं हैं।

हम मन्दिर विष्णु अवतार भगवान राम का पूजन करने जाते है, मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आचरण और हृदय में स्थान देते हैं।

जब हम ब्रह्मा जी के मंदिर में विष्णुजी को और विष्णु जी के मन्दिर में शिव जी को नहीं खोजते?

तो हमारी दृष्टि हमारे निज गुरु और माता पिता को उस स्थान पर क्यों तलाशने लगती है?

निजता से ऊपर उठना ही सनातन है।अपनी आस्था को सब पर थोपना सनातन नहीं है।

यदि आपके निज गुरु में आपके अलावा अन्य असंख्य जनों की भी आस्था है, तो भी सनातन धर्म आपको ये अधिकार नहीं देता कि आप उन्हें करोड़ों की आस्था के बराबर या उसके स्थान पर बिठाएँ।

सत्य सनातन धर्म की जय।🙏

हर्ष शेखावत