कष्ट का कारण और निवारण

कष्ट का कारण और निवारण व्यक्ति की प्रकृति और प्रवर्ती है।

प्रकृति के विरुद्ध कर्म करने की प्रवर्ती कष्ट का कारण, तो प्रकृति के अनुकूल कर्म को ही क्रीड़ा बना लेने का व्यवहार हर्षवर्धक निवारण है।

हर जड़-चेतन/जीव-निर्जीव की पहचान उसके स्वभाव से होती है। और उसकी यही पहचान उसका स्थान और उपयोगिता तय करती है।

स्थान से हटकर, पहचान से अलग और प्रकृति से जुदा वस्तु या व्यक्ति अपने अस्तित्व से द्वन्द करता दिखाई पड़ता है और स्वयं और अन्य के कष्ट का कारण बनता है।

मनुष्य को छोड़ सभी जीव प्रकृति के कहीं अधिक समीप हैं। उनकी दिनचर्या और प्रकृति में विशेष विरोधाभास नहीं होता और एक स्वाभाविक क्रीड़ा का स्वरूप होती है। यही वजह है कि उनका जीवन मनुष्य के समान उलझनों भरा वह भ्रमित और कष्टकारी नहीं है।

ईश्वर की श्रेष्ठतम कृति होते हुए भी हमें उसके बनाए अन्य प्राणियों के समान ये सामान्य ज्ञान तक नहीं कि क्या, कितना, कब और कहाँ भोजन और आराम करना है।

हमारी सोच विचार आचरण और खेल भावना की कमी वाली प्रवर्ती, हमारी स्वयं की प्रकृति के साथ श्रष्टि की प्रकर्ति से भी तालमेल नहीं खाती।

यही असमंजसता कष्ट का कारण है जिसका निराकरण हमारी प्रवर्ति, प्रकृति के अनुसार होने और कर्म को खेल भावना के साथ आनंद देने वाली क्रीड़ा बना लेने में है। ।

ऐसा नहीं प्रकृति को प्रभावित करना असम्भव है, प्रवर्ती पर काम कर प्रकृति को प्रभावित किया जा सकता है।

इसलिए प्रवर्ती सुधारें, अच्छा स्वभाव/प्रकृति बनाए रखें और खेल भावना से कष्टों का निराकरण करें।

हारे मन हारे नहीं, जीते करे न गर्व। यही खेल भावना है, यही खेल का मर्म। जीवन को खेल की तरह जीना/खेलना सीखें, कष्ट और कठिनाइयों में भी आनंद की अनुभूति होगी।

हर्ष शेखावत