“अस्तित्व और प्रयोजन”

श्रष्टि स्वयं और उसमें विद्यमान सभी कुछ अस्तित्व में है।

हर वस्तु विचार प्राणी अस्तित्व में इसलिए है की उसकी किसी न किसी, कहीं न कहीं, कम या ज्यादा आवश्यकता है।
तब तक अस्तित्व में है जबतक ईश्वर की रचना का उद्देश्य पूर्ण हो कृति या कृत्य अप्रसांगिक न हो जाए।

हर वस्तु और विचार, प्राकृतिक और मानवकृत,
प्रयोजन(उद्देश्य पूर्ती) के लिए अस्तित्व में हैं।

उद्देश्य पूर्ति की आवश्यकता उसमें योग्यतम उपयोगिता को जन्म देती है।
योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त( survival of fittest) हमें प्रयोजन की तलाश में व्यस्त कर देता है।

आर्थिक मूल्य और संतुष्टि के मानदंड पूर्ण करती योग्यतम उपयोगिता है। मगर व्यक्ति/प्राणी का निरन्तर घटता बढ़ता सामर्थ्य प्रयोजन में द्वन्द का  कारण है।

जीवात्मा योग्यतम उपयोगिता व उद्देश्य पूर्ति की खोज में व्यस्त है, तो कुछ महात्मा अस्तित्व की खोज में।

आज भौतिकता के युग मे, परमात्मा की श्रेष्ठ कृतियों में से एक मानव, अपनी कृतियों के बल पर भगवान बनने का असफल प्रयास कर रहा है।

जबकि  वह निराकार और कभी नस्ट न होने वाली वस्त्र बदलती आत्मा तो दूर,
इस आत्मा के वस्त्र स्वरूप को, भिन्न भिन्न आकर देने वाले,
पाँच तत्त्वों की रचना और विशाल वर्ण तक जानने, समझने और खोजने में सदियों से व्यस्त लेकिन असमर्थ है।

सदियों से ले कर आजतक, अधिकतर जनमानस की सबसे बड़ी समस्या एक ही है।

स्वयं  के होने का प्रयोजन और उसकी तलाश।

प्रायोजित आयोजक के प्रयोजन को साकार करता है,  बिल्कुल उसी तरह जैसे उसके द्वारा स्वयं अर्जित वस्तु और सेवाएं उसके लिए।

जैसे हमारे द्वारा प्रदत्त वस्तु निश्चित हमारे उद्देश्य पूर्ण करती है।
हम सब अपने प्रायोजक के उद्देश्य पूर्ण करते है।

हम अपने अधिकारक्षेत्र के लिए ही उत्तरदाई हैं,  न कि अपने प्रायोजक, उसके एकाधिकारी और सर्वोपरि परमात्मा के।

यदि हम अपने अधिकारक्षेत्र का उत्तरदायित्व पूरी निष्ठा से पूर्ण करें, तो कष्ट और पीड़ा का कोई कारण नहीं।
अनाधिकार चेष्टा ही सर्वाधिक वेदनाओं की जड़ है।

इसका ये मतलब कदाचित नहीं कि आप अधिकारक्षेत्र से बाधित है।

चेष्टा जब प्रसन्न हो कि जाए, तो मार्ग सहज हो जाता है।
मार्ग सरल हो तो परिणाम अधिकार क्षेत्र में आ जाता है।
अधिकार क्षेत्र में आए परिणाम को निरंतर प्रयास कर पाया जा सकता है।

फिर भी परिणाम क्योंकि अनिश्चित है, हम परिणाम प्राप्ति को जीवन उद्देश्य से जोड़ कर न देखें।
अपितु कर्म रूपी प्रयास और यथायोग्य फल को जीवन उद्देश्य की राह का पड़ाव समझें। ततपश्चात निरंतर नैतिक और धर्मसंगत कार्यों में लगे रहें।

कर्म यदि धर्मसंगत न होकर अनैतिक हों,
तो जीवन परियंत किए गए कर्म और समस्त  कर्मफल अंत समय में आत्मग्लानि का बोध कराते हैं।

अभिप्राय स्पष्ट है,
वस्तु, विचार, जड़, चेतन, प्राणी कोई भी हो सबका अपना धर्म है।
वह जो अस्तित्व में है, धर्मसंगत है। कुछ भी गलत नहीं।

गलत है तो उसका उपयोग, मात्रा , स्थान और समय।

वस्तु और विचार का उपयोग नैतिक और अनैतिक दोनों हो सकता है।
आवश्यकता से अधिक मात्रा में हर वस्तु जहर और उपयुक्त मात्रा में जहर भी दवा का काम कर सकता है।
जल, वायु, अग्नि, तभी तक लाभदायक हैं जब तक उनका स्थान सही है। अन्यथा प्राणघातक हो सकते हैं।
सत्य और झूठ भी समय के अंकुश में न हो तो कष्ट का कारण बन सकते हैं।

इस लिए अपने अस्तित्व को लेकर चिन्ता करने से अच्छा है चिंतन करें।
श्रष्टि रचियता के सामर्थ्य और समझ पर प्रश्नचिन्ह न लगाएं।

हर्ष शेखावत