“सत्य यही है, निष्पक्ष कुछ और कोई नहीं है”

पक्षपात मतलब यदि झूठ का साथ और निष्पक्ष मतलब न सत्य और न असत्य का साथ, यह संभव ही नहीं है। यदि हाँ, तो क्या निष्पक्ष होना आवश्यक है?

ये प्रश्न इसलिए क्योंकि जितना नुकसान पक्षपात करने वाले लोगों से है, उससे कहीं अधिक हानि निष्पक्ष कहे जाने वाले लोगों द्वारा, परिवार, समाज, राष्ट्र और धर्म को पहुचाई गई है।

पक्षपाती से सावधान और सचेत रह कर, विरोध और समझदारी से वार कर, समाधान खोजना और नुकसान से बचना आसान है।

वहीं निष्पक्ष समझा और कहा जाने वाला व्यक्ति हमेशा असत्य और गलत का मनोबल बढ़ाता है और विरोध और वार से बच जाता है और अधिक नुकसान करता है।

नैतिक पक्ष के साथ खड़े न हो कर व्यक्ति न चाहते हुए भी अनैतिकता का पक्ष ले अधर्म का सहभागी हो जाता है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है, जो धर्म के साथ नहीं, वो अधर्म के साथ है, धर्मयुद्ध में कोई निष्पक्ष नहीं।

हर्ष शेखावत

“गलत गलत होता है, समझौता न करें”

अनैतिक तब बढ़ता है, जब नैतिक कमजोर पड़ता है। गलत विचार और आचरण पर अंकुश लगाएँ।

जब व्यक्ति की जबान, तन और मन अश्लीलता करता है, तो माँ बहन बेटी अंकुश का काम करती हैं।

मगर जब वही माँ बहन बेटी, ये समझौता कर ले कि आदमी और लड़के तो ऐसे ही होते हैं, तो उनके अंदर अनैतिक का भय खत्म और अनैतिकता निरंकुश हो जाती है। जैसा कि हम अपने आसपास देख सकते हैं।

अपनों और कुल का नाम खराब होने का भय, समाज में बदनामी का भय, संस्कार और संस्कृति मिटने का भय ये अंकुश व्यक्ति को गलत करने से आज भी रोक सकते है।

बहुत आसान है पुनः गलत पर अंकुश लगाना, अंकुश का भय नियंत्रित और दिशा निर्देशित करता है न कि कमजोर। अंकुश के शक्तिशाली होने से आप स्वयं और समाज मजबूत होगा।

शुरुवात स्वयं और परिवार से करें, अंकुश को सहर्ष स्वीकार करे और स्वयं अंकुश बनें। बच्चे ऐसे ही हैं, लोग ऐसे ही हैं, समाज ऐसा ही है ये प्रसारित न करें।

जो बदलाव आप चाहते हैं, पहले स्वयं बनें। जो बात और आचरण आप अपने बीवी बच्चों के सामने नहीं कर सकते छुपाना पड़े जिसे अंतरमन में आप स्वयं गलत मान चुके हैं उसे प्रलोभन में आ किसी के साथ भी न करें।

अच्छी बात सिर्फ प्रवचनों व पुस्तकों तक और गलत को आचरण में न रखें। प्रकाश की अनुपस्थिति ही अन्धकार है, और नैतिकता का आभाव ही अनैतिकता।

एक सभ्य समाज का दायित्व किसी संस्था और सरकार से पहले हमारा अपना है। स्वयं पे अंकुश को स्वीकार करें मजबूत करें और एक मजबूत अंकुश बनें।

ऐसा माहौल बनाएँ कि गलत को आपकी सीमाओं में तो दूर आसपास आने में भी च्यार बार सोचना पड़े।

जिसे बढ़ावा देंगे वही बढ़ेगा। इसलिए सही को चुनें, स्वार्थ और तृष्णा ने वैसे ही गलत का बहुत विस्तार कर दिया है।

हर्ष शेखावत

“स्वाभिमान जरूरी, अभिमान से रखें दूरी”

मान-सम्मान प्राप्त करना हर व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य होता है और होना भी चाहिए।

आप की उप्लब्धधियों के अनुसार लोग आपको मान सम्मान देंगे। उपलब्धी के गर्भ में अहंकार व्यक्ति को अभिमानी बना देता है।

उप्लब्धधियां नैतिक हुईं तो आपका आत्मसम्मान बढ़ेगा, यदि अनैतिक तो अहंकारवश अभिमान बढ़ेगा।

अच्छे स्वभाव और आचरण को महत्व दे प्राप्त उप्लब्धधियों से मिला गौरव स्वाभिमान है, तो स्वयं को महत्व दे दूसरों को तुच्छ समझ प्राप्त मान सम्मान अभिमान है।

स्वाभिमान क्योंकि स्वतंत्र और स्वतंत्रता का पक्षधर होता है अपमान से बचाता है। वहीं अभिमान अपमानित कर अपमानित हो दूसरो की स्वतंत्रता से अपने स्वार्थ के लिए लड़ता है।

आपको अपनी उप्लब्धधियों का यदि भान और स्वाभिमान है, तो क्या अपने अभिमान का ज्ञान भी है?

अपने निजी स्वाभिमान को सार्वजनिक पटल पर (मैं स्वरूप) अभिमान में परिवर्तित न होने दें।

स्वाभिमान जहाँ स्वयं, घर परिवार, समाज और राष्ट्रनिर्माण का मार्ग प्रशश्त करेगा वहीं अभिमान पतन का कारण बनेगा।

हर्ष शेखावत

“मतभेद को मनमुटाव फिर मनभेद न बनाएं”

किसी से सहमत होना आपके हाथ है, तो किसी का आपसे सहमत होना उसके हाथ। असहमति के पीछे के मतभेद को समझें और स्वीकार करें।

सिक्के के दो पहलू से अधिक भिन्न नहीं है किसी व्यक्ति का दृष्टिकोण। कीचड़ में गिरा सिक्का जैसे आप धो कर स्वीकार कर लेते हैं। वैसे ही व्यक्ति के अवगुणों को साफ कर उसे उसके गुणों के साथ स्वीकार करें।

जब आप किसी के अवगुण उजागर करते है और गुणों पर पर्दा डालते है तो मतभेद मनमुटाव बन मनभेद होने लगता है। इसलिए अपने या अपनों के अवगुणों को यदि सुधारने में असमर्थ हो तो प्रचारित प्रसारित न करें।

आप जिस चीज का प्रसार प्रचार करेंगे वो ही फैलेगा इसलिए खुशबू फैलाएं न कि दुर्गंद। बिना खाद की दुर्गंद पाए, न खुशबू देने वाले फूल मिल सकते हैं, न आनंद देने वाले फल और न ही आपको सफल करने वाले आपके अपने।

आवश्यता है तो सिर्फ दुर्गंद को फैलने से रोकने की और उसका इलाज करने की यदि नहीं किया तो परिणाम घातक हो सकते हैं। फल फूल और आपके अपने अस्तित्व खो सकते हैं।

आपको व्यक्ति, फल और फूल को उसकी विशेषताओं के आधार पर प्रसारित प्रचारित करना है, न के उन्हें पाने और बनाए रखने में आई कठिनाई और राह के कांटे।

ये आवश्यक नहीं कि आपको सभी स्वाद, गन्द और स्वभाव पसन्द आएँ।

मतभेद प्रकृति का हिस्सा है, इसे मनमुटाव और मनभेद न बनाएं।

हर्ष शेखावत

विवाद और विवादास्पद

मतभेद से वाद-विवाद और विवाद से विवादास्पद।

आप एकमत नहीं, इसलिए आप वाद विवाद करेंगे, अपने द्वारा जुटाई जानकारी और बुद्धि द्वारा तर्क/कुतर्क का प्रियोग कर विवाद उत्पन्न करेंगे और विषय हो जाएगा विवादास्पद।

जुटाई गई जानकारी के बारे में आप कितना जानते है यह एक बड़ा प्रश्न है, विवेक से स्वयं या दूसरे की जुटाई जानकारी का तथ्य अवलोकन कर, सच्चाई जान, सच मान जाइए विवाद खत्म।

कल की उलझन, परिस्तिथियाँ बदल जाने से आज सुलझी जान पड़ सकती है तो, कल फिर उलझी होने का आभास करा दे।

वजह यहाँ विषय नहीं, विषय पर एकत्रित जानकारी, तथ्यों का अभाव, देखने वाले का दृष्टिकोण, बुद्धि प्रयोग और सब से प्रमुख परिस्तिथि है।

यदि तर्क वितर्क ही विवाद है तो किसी भी विषय  पर दो बुद्धिजीवी तर्क वितर्क कर विवादित बना सकते हैं मगर हमेशा ऐसा नहीं होता।

किसी भी विषय पर बुद्धि के स्थान पर विवेक और तर्क के स्थान पर तथ्य उपयोग कर विवाद को खत्म और विषय को अविवादित बनाया जा सकता है।

बुद्धिजीवियों द्वारा स्वार्थवश जानकारियाँ जुटा कुतर्क और बुद्धि प्रयोग से स्वार्थ सिद्धि हेतु स्तिति को प्रतिकूल करने की चेष्टा कर विवाद आरम्भ करना भी विषय को विवादित बना सकता है।

मगर तभी, जब हम परिवार, समुदाय, भाषा, जाति, पंथ और धर्म के नाम पर गलत के साथ खड़े हो स्तितिथि को तथ्यों के प्रतिकूल और तर्क के अनुकूल कर रहे हैं।


उदाहरण, धारा 370 विवादित था है नहीं। राममंदिर का विषय विवादित था है नहीं। वर्तमान उदहारण लें तो प्रतिकूलता के कारण CAA, NRC और किसान आन्दोलन विवादित है, मगर अनुकूल परिस्तिथि में इनपर बने कानून अब विवादित नहीं। विवादित होने का भ्रम हो सकता है।

भ्रम न हो इसके लिए जाने अनजाने हम गलत को प्रोहतसान दे विवाद को जन्म देने और किसी भी विषय को विवादित बनाने में सहभागी न बनें।

विवेक से विवाद टाले तो जा सकते है पर विवाद खत्म हो ये सुनिश्चत करने के लिए सामर्थ्य और शक्तिवर्द्धन अनिवार्य है।

विषय कोई भी हो परिणाम जनकल्याण हेतु हर्ष वर्द्धक हैं और परिस्तिथि अनुकूल, विषय विवादित नहीं रह जाता और न ही विवाद का कोई स्थान।

हर्ष शेखावत

“कीमत”

कीमत चुका कर ही स्वामित्व का अधिकार मिलता है।

सेवा या वस्तु कीमत दिए बिना नहीं मिलती, मिले तो समझो स्वामी मिला है स्वामित्व नहीं।

कृपा ही लेनी है तो उसकी लो जो सबको देता है, वही है सबका एकमात्र स्वामी जो कर्मफल और निमित देता है।

कीमत वो भी लेता है, निमित दिया तुमको जैसे, बनाकर निमित तुम्हें वैसे, सबपर कृपा बरसाता है।

स्वामी तुम जब भी बनो, कीमत देना मत भूलो।

वंदेमातरम, भारत माता की जय।

हर्ष शेखावत

“नैतिकता क्या है ? क्या नैतिकता है ? क्यों आवश्यता है ?”

जन्म से जीवनप्रियंत, नैतिकता का पाठ हम सब को अपने माता पिता व बड़ों से। शैक्षणिक, व्यावसायिक और आध्यात्मिक शिक्षक और गुरु  से, मिला है और मिलता रहेगा।

नैतिकता की परिभाषा, व्यक्ति, समाज, वक्त, स्थान, ज्ञान, विज्ञान,  संस्कार और संस्कृति पर निर्भरता के कारण,  नियम, शैली, विचार, आचरण, क्रिया  नीयत और परिणाम आधारित है।

सरल शब्दों में हर वो सोच, विचार, आचरण और कार्य जिसके परिणाम में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न हो, अनुसरणीय आदर्शों और संस्कृति का विकास हो, व्यक्तित्व समाज और राष्ट्र का निर्माण हो, वह नैतिक है। इन्हें नियमबद्ध होकर, स्वभाव बना, नेकनीयत के साथ जीवन में धारण करना ही नैतिकता है।

इसके विपरीत आप की सोच विचार आचरण से नकारात्मकता,  उपेक्षा, अनादर, घृणा और तिरस्कार की भावना और बदनियती झलकती है, और किसी अन्य का बेवजह अहित, सिर्फ आपके निजी स्वार्थ के लिए तो यह अनैतिक है। और ऐसा करना अनैतिकता।

क्या नैतिकता है?

न होती, तो ये लेख न लिखा जाता और आप पढ़ भी नहीं रहे होते। स्वरूप बदलती नैतिकता, प्रतिकूलता वश अनैतिक हो रही है।

स्वार्थ भी नैतिक है, यदि परोपकार निहित है, न कि जनसामान्य का अहित। प्रतिकूल: किसी अन्य की हानी, स्वयं पे उपकार ऐसा स्वार्थ अनैतिक है।

झूठ और क्रोध भी  राष्ट्र की सुरक्षा या किसी अन्य निर्दोष की रक्षा के लिए बोला/किया तो नैतिक है। और वही झूठ और क्रोध जब स्व रक्षा और दोषी की रक्षा करे तो वह अनैतिक हो जाता है।

झुकना विनम्बरता से स्वयं फल फूल कर दूसरों को उठाने के लिए नैतिकता है। वहीं कठोर बन दूसरे को बलपूर्वक झुकाने/मिट्टी में मिलाने हेतु कष्टकारी झुकना अनैतिक है।

नैतिकता दीर्घकालिक सुख, तो अनैतिकता क्षणिक सुख देगी, ये जानना और समझना ही आवश्यकता है।

धसर्मसंगत और नेक नियत से किया नैतिक कार्य ही आपको यश और कीर्ति प्रदान करेगा।

इसके अतिरिक्त अच्छे व्यक्तित्व, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए नैतिकता अति आवश्यक है।

क्योंकि अनैतिक आचरण ही पतन का सबसे बड़ा कारण है।

हर्ष शेखावत

“नई पीढ़ी, नैतिकता और संस्कार”

हमेशा से सभी की इच्छा रही है कि, हम अपने बच्चों को नैतिकता सिखाएं और अच्छे संस्कार दें।

फिर बाधा कहाँ है?

बाधा है ये प्रश्न कि इस हायतोबा और अनैतिकता भरे वातावरण में नैतिकता सीखने और अच्छे संस्कार देने लेने का वक्त किसके पास और कहाँ है?

जबकि वक्त तो सभी के पास हमेशा और हर जगह इतना ही था, है और रहेगा फिर ये जिन्दगी हायतौबा में कैसे बदल गई?

अनैतिकता किसने सिखाई और संस्कार कहाँ खो गए?

दोष हमेशा ही वक्त और वर्तमान पीढ़ी को दिया गया, मगर सच्चाई ये है कि भविष्य की नींव वर्तमान में तो वर्तमान की नींव अतीत में रखी गई।

हमनें वो सीखा: जो पढ़ा, सुना, देखा और किया।

जो पढ़ा याद रहा पर उतना नहीं जितना कि सुना हुआ।

सुना हुआ याद रहा पर उतना नहीं जितना देखा हुआ।

जो सुना भी और देखा भी वो कहीं अधिक याद रहा।

उससे अधिक वो जिसे सुन देख अपनी चर्चाओं में शामिल किया।

और कभी नहीं भूले उसे, जिसे खुद करके दिखाया।

इन सब के लिए : उनके पास, हमारे पास, और इनके पास,

उतना ही वक्त, था, है और हमेशा रहेगा ।

उन्होंने हमें वो दिया जो उनके पास था और हम वो देंगे जो हमारे पास होगा।

हमने वही लिया जो हमें उपलब्ध कराया गया , ये वही लेंगे जो हमारे पास होगा।

हमें वही पढ़ाया, सुनाया और करके दिखाया गया जिससे उनके स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य में हमारी सदियों पुरानी नैतिकता और संस्कार बाधा न बनें।

अब ये हमारा दायित्व है कि हम वो पढ़ें, सुनें, देखें और करके दिखाएं, जिससे हमारे खोए संस्कार फिर हमारे पास उपलब्ध हों, और नैतिकता और संस्कारों का वातावर्ण बना कर भावी पीढ़ी को कुछ दे सकें।

जब तक हम स्वयं, स्वस्थ तन, मन और मस्तिष्क के लिए कुछ नहीं करते, दूसरे को कैसे प्रेरित कर सकते हैं।

जब तक मैं अपने अन्दर सुधार नहीं करूंगा, परिवार में सुधार संभव नहीं। परिवार से परिवेश और परिवेश से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है।

अब वक्त आ गया है, सदियों से प्रेरणा रही हमारी संस्कृति और संस्कारों को फिर से अपनाने का।

कर्म के आधार पर वर्ण में एकीकृत होने का, न कि जन्म आधारित जातियों में बंटनें का।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः, का मंत्र जपने का न कि फूट डालो और राज करो।

प्रयास करने से ही वातावर्ण अनुकूल होगा, वर्तमान अनुरूप और वक्त उपयुक्त होगा।

हर्ष शेखावत