हमेशा से सभी की इच्छा रही है कि, हम अपने बच्चों को नैतिकता सिखाएं और अच्छे संस्कार दें।
फिर बाधा कहाँ है?
बाधा है ये प्रश्न कि इस हायतोबा और अनैतिकता भरे वातावरण में नैतिकता सीखने और अच्छे संस्कार देने लेने का वक्त किसके पास और कहाँ है?
जबकि वक्त तो सभी के पास हमेशा और हर जगह इतना ही था, है और रहेगा फिर ये जिन्दगी हायतौबा में कैसे बदल गई?
अनैतिकता किसने सिखाई और संस्कार कहाँ खो गए?
दोष हमेशा ही वक्त और वर्तमान पीढ़ी को दिया गया, मगर सच्चाई ये है कि भविष्य की नींव वर्तमान में तो वर्तमान की नींव अतीत में रखी गई।
हमनें वो सीखा: जो पढ़ा, सुना, देखा और किया।
जो पढ़ा याद रहा पर उतना नहीं जितना कि सुना हुआ।
सुना हुआ याद रहा पर उतना नहीं जितना देखा हुआ।
जो सुना भी और देखा भी वो कहीं अधिक याद रहा।
उससे अधिक वो जिसे सुन देख अपनी चर्चाओं में शामिल किया।
और कभी नहीं भूले उसे, जिसे खुद करके दिखाया।
इन सब के लिए : उनके पास, हमारे पास, और इनके पास,
उतना ही वक्त, था, है और हमेशा रहेगा ।
उन्होंने हमें वो दिया जो उनके पास था और हम वो देंगे जो हमारे पास होगा।
हमने वही लिया जो हमें उपलब्ध कराया गया , ये वही लेंगे जो हमारे पास होगा।
हमें वही पढ़ाया, सुनाया और करके दिखाया गया जिससे उनके स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य में हमारी सदियों पुरानी नैतिकता और संस्कार बाधा न बनें।
अब ये हमारा दायित्व है कि हम वो पढ़ें, सुनें, देखें और करके दिखाएं, जिससे हमारे खोए संस्कार फिर हमारे पास उपलब्ध हों, और नैतिकता और संस्कारों का वातावर्ण बना कर भावी पीढ़ी को कुछ दे सकें।
जब तक हम स्वयं, स्वस्थ तन, मन और मस्तिष्क के लिए कुछ नहीं करते, दूसरे को कैसे प्रेरित कर सकते हैं।
जब तक मैं अपने अन्दर सुधार नहीं करूंगा, परिवार में सुधार संभव नहीं। परिवार से परिवेश और परिवेश से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है।
अब वक्त आ गया है, सदियों से प्रेरणा रही हमारी संस्कृति और संस्कारों को फिर से अपनाने का।
कर्म के आधार पर वर्ण में एकीकृत होने का, न कि जन्म आधारित जातियों में बंटनें का।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः, का मंत्र जपने का न कि फूट डालो और राज करो।
प्रयास करने से ही वातावर्ण अनुकूल होगा, वर्तमान अनुरूप और वक्त उपयुक्त होगा।
हर्ष शेखावत