सुविधा असुविधा और प्राथमिकता

सुविधा असुविधा जीवन का हिस्सा है,
आपकी निजी या संघठन की सफलता प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है।

आप अपनी सुविधानुसार प्राथमिकता और निजनिर्णय के लिए स्वतंत्र हैं।

निजनिर्णय जब सुविधा और निजी प्राथमिकता के कारण संस्था या संघटन को प्रभावित करें तो वे स्वस्थ संघठन के लिए बाधक साबित होते हैं।

व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता स्वस्थ समाज और राष्ट्रहित से ऊपर नहीं हो सकती।

“सानिध्य संघ का”

सानिध्य(संगत) का सही होना बहुत जरूरी है, क्योंकि गलत संगत आपके जीवन को उतना ही प्रभावित करती है जितना अच्छी संगत।

सानिध्य का सही या गलत होना, आप किस्मत पर नहीं छोड़ सकते। स्वयं को अनुशासित, संस्कारित और पाबंदित करने आपको उस संघ का हिस्सा (स्वयंसेवक) होना होगा जहाँ ये सब प्रचुरता में उपलब्ध है।

आपके विकास और सफलता में आपका सही स्थान पर होना, और वहाँ तक पहुँचने के लिए सही संगत का होना अत्यन्त आवश्यक है।

गलत संगत आपके विकास और सफलता पर एक ग्रहण समान है, वहीं अच्छी संगत आपको और अधिक सफलता पाने में न सिर्फ मददगार होती है, वहाँ बने रहने में भी सहायक होती है।

संगत के चुनाव का मतलब ये कतई नहीं है कि आप भेदभाव कर रहे हैं या जिसकी संगत छोड़ रहे हैं उसे गलत या अपने से कम आँक रहे हैं।

जब भगवान राम ने अपने भाइयों के साथ शिक्षा अर्जित करने, राजभवन( माता पिता ) की संगत छोड़ आश्रम में गुरु और गुरुमाता की संगत की तो इसलिए कि राजभवन की संगत उनकी शिक्षा दीक्षा को निश्चित प्रभावित करती। विद्यार्थी के लिए आवश्यक :-

कव्वे सी चेष्टा, बगुले सा ध्यान, कुत्ते सी नींद। खाना कम और घर का त्याग ये पाँच अनिवार्य लक्षण है।(काक चेष्टा, बको ध्यानं,स्वान निद्रा तथैव च । अल्पहारी, गृहत्यागी,विद्यार्थी पंच लक्षणं ॥ )

जो गुरुकुल में ही सम्भव थे। इसीलिए हमारे यहाँ पहले शिक्षा के लिए गुरुकुल व्यवस्था थी और आध्यात्म की शिक्षा के लिए आश्रम व्यवस्था।

वातावरण का अनुकूल या प्रतिकूल होना आपके द्वारा चयनित संगत पर निर्भर करता है।

आप सकारात्मक सोच रखते हैं और संगत नकारात्मक है तो आप उन्हें और वो आपको प्रभावित अवश्य करेंगे। आपका व्यक्तित्व आपके सामाजिक दायरे से बनता है। और कोई भी विवशता आपके व्यक्तित्व निर्माण और सफलता को बाधित कर सकती है।

इसलिए समझदारी से बिना किसी विवशता के आप अपनी संगत चुने। नकारात्मक प्रभावों से बाधित और व्यतिगत कारणों से निर्मित संघ की सेवा कर आप स्वयंसेवक के लाभों से वंचित और संकुचित व्यक्ति बनते है। जो भी संघ चुने स्वयंसेवक बने ।

हर्ष शेखावत

“दीर्घसूत्रता”

वक्त ही एक ऐसा है, जो न रुकता है, न घटता है और न बढ़ता है।

जो वक्त के साथ नहीं चलता, कुछ भी करने में आवश्यकता से अधिक वक्त लेता है, वो निश्चित ही अपनी क्षमताओं को घटा रहा है।

यदि आप निर्धारित समय पर काम पूरा नहीं कर रहे हैं, मतलब आप दीर्घसूत्रता के शिकार हो रहे हैं।

कोई भी काम स्वयं को निर्धारित समय के हिसाब से बढ़ा लेता है। मगर ये समय आपके काम के पूर्ण होने का न इंतजार करता है न बढ़ता है।

आवश्यता से अधिक समय लगा कर किए काम को ही दीर्घसूत्रता कहा गया है।

जितना किसी काम का पूरा करना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण उसका समय सीमा में पूर्ण करना है।

हर्ष शेखावत

“अच्छी यादें बनाएँ””

वक्त कभी किसी का एक जैसा नहीं रहा। वक्त जैसा भी हो अच्छी यादें बनाएँ। ये यादें हमेशा साथ रहेंगी।

अच्छे वक्त की अच्छी यादें, बुरा वक्त काटने में मदद करेंगी। और बुरे वक्त में अच्छी यादें बना, आप का अच्छा वक्त जल्द लौटे ये सुनिश्चित करेंगे।

वक्त अच्छा और बुरा सबके जीवन में आता है, मगर उस वक्त आपका व्यवहार कैसा था, इसके लिए लोग हमेशा आप को याद करेंगे।

आप अच्छे व्यवहार के लिए याद किए जाना चुनेंगे तो आपका वर्तमान, और भविष्य तो सुख शान्ति से परिपूर्ण होगा ही आप एक अच्छे समाज और राष्ट्र निर्माण का हिस्सा होंगे।।

हर्ष शेखावत

“स्वयं को सुधारें”

यदि किसी को आसानी से आप बदल सकते हैं तो वो, स्वयं आप हैं। जो सुधार आप दूसरों में चाहते हैं, सर्वप्रथम अपनेआप में करें।

सबसे पहले अपनी बोलचाल की भाषा से कटुशब्द त्याग दें और विनम्बर बनें। प्रतिदिन अच्छा साहित्य पढ़ने की आदत डालें, जो भी विषय आपको रुचिकर है।

परिवार में अपने बड़े या छोटों से उग्र न हों, वे आपसे इसकी अपेक्षा नहीं करते। अपने आसपास लोगों को समझें और उनके दृष्टिकोण का सम्मान करें, एकमत होना जरूरी नहीं।

कुछ वक्त प्रतिदिन प्रकृति के साथ बिताएं, और स्वयं की प्रकर्ति में समाविष्ट करें। पशु पक्षियों को दाना पानी देना दिनचर्या का हिस्सा बनाएं, सुकून मिलेगा और पारितोषिक ईश्वर से पायेंगे।

अभिमान त्याग सीखने के लिये तत्पर रहें, स्वाभिमान को आहत किए बगैर। प्रश्न पूछने में संकोच न करें, प्रश्न करने वाला जवाब न मिलने तक अज्ञानी है, मगर संकोच करने वाला ताजिन्दगी।

जो कुछ भी करे, 100% सहभागिता के साथ। सकारात्मक लोगो का साथ लें, नकारात्मक परिवेश से बचें। तुलना दूसरों की बजाए अपने कल की अपने आज से करें। स्वयं को बेहतर बनाएँ।

सफलता के लिए निरन्तर प्रयास करें, जीवन की सब से बड़ी असफलता है प्रयास न करना। रूपरेखा बना प्रयास करने से सफलता आसान हो जाती है।

आभाव का रोना छोड़ अच्छी मानसिक और शारिरिक सेहत पर काम करें, उम्मीद न छोड़ें, उम्मीद पर दुनियाँ कायम है।

स्वस्थ तन मन बुद्धि के लिए ताजा फल और सब्जियों(सलाद) को आहार का हिस्सा बनाएँ और शरीर में पानी की कमी न होने दें।

स्वस्थ रहें, स्वास्थ्य से उम्मीद और उम्मीद से जीवन है। जीवन को सरल बनाएँ।

हर्ष शेखावत

“चिंतन करें न कि चिंता, चिंता चिता समान है”

चिंता यदि स्वाभाविक भी हो तो चिंतन करें, चिंता दूर होगी।

चिंता को चिता समान कहा है। चिता और चिंता में फर्क सिर्फ एक बिन्दु का है। जीवित व्यक्ति के विचार बिन्दुओं से आछ्यादित चित को जलाए वो चिंता और व्यक्ति के नश्वर तन को जलाए वो चिता।

बिन्दु के उपयोग का सौन्दर्य देखें, चिंता जो चित जला रही थी, बिन्दु हटी तो चिता बन तन जलाने लगी।

वही चित और तन किसी विचार बिन्दू पर समन्वित हो चित+तन ऊपर बिन्दु ले  चिंतन बन चिंता को दूर करने लगा।

इसलिए हर परिस्थिति में, हर बिंदु पर जब भी चिंताग्रस्त हों तो चिंतन/विचार विमर्श कर चिंता दूर करें।

हर्ष शेखावत

“हर्ष वर्द्धन, न कि फंसी है गर्दन”

सब को खुश करना मतलब स्वयं की इच्छाओं को मारना। आप सबको खुश करने का प्रयास न करें, क्यों कि कर ही नहीं सकते।

घर परिवार, कार्यक्षेत्र और समाज, सबकी अपेक्षा जुड़ी है, कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती बहुत बड़ी है।

मैं हर्ष हूँ, हर्षित हूँ, इसलिए हूँ हर्षवर्धक नहीं हूँ तो बेवजह दुखी के जीवन में हर्ष वर्द्धन का बंधक।

हर्षवर्द्धक रहो बन्धक न बनो, स्वयं की खुशी को चुनो। खुश नहीं कर सकते सबको तो क्या, किसी के दुख का कारण न बनो।

हर्ष संग हमेशा समाधान का हिस्सा बनो, समाधान में समस्या बनने का संघर्ष न करो।

माकूल अपनो के लिए, तो यथायोग्य/नामानुकूल गैरों के लिए। सार्थक जो करना है अपनो का दिया नाम। हर्ष संग करो सबके संग काम, हर्ष बनाता है सहज हर काम।

हर्ष वर्द्धन हूँ मैं, हर्षवर्धक हो सब। फंसी हो न गर्दन किसी की, रहे जीवन में हर्षित सब।

हर्ष शेखावत

“रिश्तों में कड़वाहट और तारतम्य”

रिश्ता कोई भी हो, उसका आधार आवश्यकता(जरूरत) है। और जरूरत हमेशा नहीं रहती, या फिर कहें बदलती रहती है, और यही कारण है रिश्तों में कड़वाहट और तारतम्य होने न होने का।

जब हम छोटे होते है, हमारी जरूरतें लगभग एक जैसी और छोटी होती हैं। हर रिश्ता चाहे बहन-भाई, भाई-भाई या फिर दोस्ती का ही क्यों न हो कड़वाहट कम और बहुत सुन्दर तारतम्य होता है।

जैसे जैसे हम बड़े होते हैं हमारी प्रकृति विकसित होने लगती है जरूरतें बदलने तो तारतम्य बिगड़ने और कड़वाहट बढ़ने लगती है।

व्यक्ति अपनी अलग विशेषता और स्वभाव से पहचाना जाता है। हर व्यक्ति यही विशेषता/अन्तर रिश्ते में साथ ले कर आया है। बहुत बार तो रिश्ते की वजह भी यही विशेषता/अन्तर बनता है।

दो व्यक्ति कभी एक समान नहीं हो सकते, यदि हम समानता ढूंढ रहे है तो निश्चित ही तारतम्य टूट जाएगा और कड़वाहट बढ़ेगी।

जैसे-जैसे आप रिश्ते में आगे बढ़ेंगे, यह भिन्नता अधिक स्पष्टता से उभर कर सामने आएगी।

अगर आप इस अंतर का आनंद लेते हुए आगे बढ़ना नहीं सीखेंगे, तो स्वाभाविक रूप से रिश्ते में दूरी और कड़वाहट आएगी।

आप रिश्ते में ये अपेक्षा करते हैं कि दोनों एक दिशा और एक तरीके से आगे भढें तो ये स्वयं और अन्य के साथ अन्याय होगा। रिश्ते में दम घुटने लगेगा और टूट जाएगा।

रिश्ते में जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं परिपक्व होते हैं जरूरतें बदलने लगती है। बदलती जरूरतों के साथ जो कभी महत्वपूर्ण हुआ करता था महत्व खो देता है।

विशेषता की जगह कमियाँ उजागर होने लगती हैं। जो उजागर होगा वही विस्तार भी करेगा, जहाँ विशेषता के विस्तार से तारतम्य मजबूत हुआ, वहीं कमियों ने कड़वाहट बढ़ाई।

हमें किसी रिश्ते को हमेशा के लिए उन्हीं जरूरतों पर आधारित मानने की गलती से बचना है। कमियों को दूर करना या पर्दा डालना है और विशेषताओं को उजागर और प्रसारित करना है।

यह सोचने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है कि रिश्ता अब समाप्त हो गया है। हम कभी भी किसी भी रिश्ते को किसी और रूप में विकसित कर सकते हैं। इसकेलिए रिश्ते के आधार पर काम करने की जरूरत है।

रिश्तों की कड़वाहट को रिश्तों में तारतम्य से बदलने के लिए ये जरूरी है कि हम व्यक्ति की विशेषता और शक्तियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें न कि त्रुटि व कमजोरियां।

हर्ष शेखावत

कष्ट का कारण और निवारण

कष्ट का कारण और निवारण व्यक्ति की प्रकृति और प्रवर्ती है।

प्रकृति के विरुद्ध कर्म करने की प्रवर्ती कष्ट का कारण, तो प्रकृति के अनुकूल कर्म को ही क्रीड़ा बना लेने का व्यवहार हर्षवर्धक निवारण है।

हर जड़-चेतन/जीव-निर्जीव की पहचान उसके स्वभाव से होती है। और उसकी यही पहचान उसका स्थान और उपयोगिता तय करती है।

स्थान से हटकर, पहचान से अलग और प्रकृति से जुदा वस्तु या व्यक्ति अपने अस्तित्व से द्वन्द करता दिखाई पड़ता है और स्वयं और अन्य के कष्ट का कारण बनता है।

मनुष्य को छोड़ सभी जीव प्रकृति के कहीं अधिक समीप हैं। उनकी दिनचर्या और प्रकृति में विशेष विरोधाभास नहीं होता और एक स्वाभाविक क्रीड़ा का स्वरूप होती है। यही वजह है कि उनका जीवन मनुष्य के समान उलझनों भरा वह भ्रमित और कष्टकारी नहीं है।

ईश्वर की श्रेष्ठतम कृति होते हुए भी हमें उसके बनाए अन्य प्राणियों के समान ये सामान्य ज्ञान तक नहीं कि क्या, कितना, कब और कहाँ भोजन और आराम करना है।

हमारी सोच विचार आचरण और खेल भावना की कमी वाली प्रवर्ती, हमारी स्वयं की प्रकृति के साथ श्रष्टि की प्रकर्ति से भी तालमेल नहीं खाती।

यही असमंजसता कष्ट का कारण है जिसका निराकरण हमारी प्रवर्ति, प्रकृति के अनुसार होने और कर्म को खेल भावना के साथ आनंद देने वाली क्रीड़ा बना लेने में है। ।

ऐसा नहीं प्रकृति को प्रभावित करना असम्भव है, प्रवर्ती पर काम कर प्रकृति को प्रभावित किया जा सकता है।

इसलिए प्रवर्ती सुधारें, अच्छा स्वभाव/प्रकृति बनाए रखें और खेल भावना से कष्टों का निराकरण करें।

हारे मन हारे नहीं, जीते करे न गर्व। यही खेल भावना है, यही खेल का मर्म। जीवन को खेल की तरह जीना/खेलना सीखें, कष्ट और कठिनाइयों में भी आनंद की अनुभूति होगी।

हर्ष शेखावत

“लालच एक बला ?”

लालच बुरी बला है,
यदि निजता में पला है।

यदि क्षमता से अधिक पाना है ,
अधिकार से किसीको वंचित करना है।

लालच एक कला है,
यदि सबको मान मिला है,

मुख सबका खुशी से खिला है,
यदि सुव्यवस्था में जो ढला है।

संतोष में ही, यदि जीवन है,
तो अभावग्रस्त क्यों ये मन है?

यदि अधिक पाना लालच है,
तो नैतिक कमाई बढ़ाना क्या है?

इसलिए

लालच करो, लालची बनो, लालच से न डरो।

सिर्फ

परिणाम सुखद हो, दीर्घकालिक हो, इतना सा ध्यान धरो।

हर्ष शेखावत