“पंथ मज़हब और धर्म”

ईसा से पहले, न इसाई थे।
न मौहम्मद से पहले मुसलमान। मगर सनातन धर्म था, है और इसे रहना होगा।

ईसाई पंथ खुद को दूसरों से जुदा तो, मज़हब इस्लाम में, मुसलमान खुद को खुदा से कम नहीं समझता है। इसके विपरीत सनातनी हिन्दू सबको(सम्पूर्ण वसुधा को) अपना कुटुम्ब समझता है।

वह मज़बूरी भुनाते हैं, छल कपट लालच से अपना पंथ बढ़ाते हैं। ये डरा धमका आबादी बढ़ाने को अपना मज़हब बताते है। फिर अपनाते तक नहीं सिर्फ कट्टर बनाते हैं।

अब वक्त आ गया है सनातन धर्म जानने का । जरूरत पड़े तो कट्टर बन कट्टर बनाने का। अनादि जानते हो यदि, और अंत से अगर बचना है?

वक्त आगया सबको सनातनी हिन्दू मानने का।

सनातन मतलब :

जिसका आदी है, न अन्त है।

धर्म मतलब :

जो नैतिक है, अनैतिक नहीं।

जो निर्माण करे, विध्वंश नहीं।

जो रक्षा करे, भक्षण नहीं।

परोपकार है, अत्याचार नहीं।

जो जोड़े, तोड़े नहीं।

जो प्रेम और सहयोग है, द्वेष और इर्ष्या नहीं

जिसकी जीवन शैली धर्मसंगत है सनातन धर्म आधारित है वह हिन्दू है।

इसलिए गर्व से कहो हम हिन्दू है।

हर्ष शेखावत

“सम्बन्ध” नैतिक या अनैतिक

अक्सर जब सम्बन्ध का जिक्र हो, तो रिश्ते, नाते, लेनदेन नजदीकियां और न जाने कितने इसी तरह के भिन्न भिन्न विचार मस्तिष्क में आते हैं।

और फिर सवाल उठता है, इनमें नैतिकता का।

सम्बन्ध कभी अनैतिक नहीं होता यह जानना जरूरी है।

इसके लिये सबसे पहले ये समझने का प्रयास करते हैं कि सम्बन्ध है क्या?

सम्बन्ध शब्द बना है सम (उपसर्ग) और बन्ध(धातु) से।
“सम” का अर्थ है सम्यक अर्थात परिपूर्ण अथवा पूर्ण(100%),

और “बन्ध” से अभिप्राय है बंधन। अर्थात सम्बन्ध का अर्थ हुआ सम्पूर्ण(/ चहुंओर/हरप्रकार)100% बन्धन।दूसरे शब्दों में परिपूर्ण और पूर्ण बंधन।

जो हमारे और ईश्वर के बीच तो है मगर किसी अन्य के बीच सम्भव है भी तो बहुत कठिन। तो अनैतिकता का सवाल ही क्यों।

माता पिता, भाई बहन, पत्नी व अन्य रिश्ते नातों की बात करें तो इनमें से कोई भी न परिपूर्ण है और न ही पूर्ण।
दोस्ती भी अपवाद नहीं तो मालिक नौकर, क्रेता विक्रेता, उत्पाद उपभोक्ता में कैसा सम्बन्ध?

अधिकतर रिश्ते नाते स्वार्थ के है।
जो स्वार्थ के नहीं भी है उनकी आयु अनिश्चित है क्षण का भी भरोसा नहीं। हर कोई अपने कर्म के हिसाब से गति पाएगा।

इसलिए अनैतिक छोड़ नैतिक रिश्ते नातों को भी सम्बन्ध कहना गलत होगा।
क्योंकि व बंधन रिश्ता जो स्वार्थ वश परिपूर्ण नहीं, और अपनी अनिश्चित या क्षणिक आयु के नाते पूर्ण नहीं।

सम्बन्ध के अलावा कुछ भी हो सकता है पर संबंध नहीं।

जबकि ईश्वर मात-पिता भाई-बहन सखा बन सदैव बिना भेद किये कर्मफल प्रदान करता है।
आप नास्तिक हो या आस्तिक, ईश्वर जल वायु, प्रकाश सबको समान रूप से इसी धरती पर एकसमान जीवनप्रियंत उपलब्ध करता है।

इसीलिए कहते है,
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम् देव देव।

यहाँ गौर करने वाली बात है, तुम ही हो।
यहाँ “ही” से अभिप्राय दूजा कोई नहीं से है।

इससे ये स्पष्ट होता है कि सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ परमात्मा और उसकी श्रष्टी के बीच है जो नैतिक है।

इस लिए सम्बन्ध को छोड़ कुछ भी नैतिक या अनैतिक हो सकता है।
मगर ईश्वर से सम्बन्ध सिर्फ नैतिक होता है, अनैतिक नहीं।

हर्ष शेखावत।

स्वार्थ इंसानियत और रिश्ता

इंसान को अपनाओ,

खोखला अपनापन मत जताओ।

इंसानियत रिश्तों की मोहताज नहीं होती,

जो होती है वह धोका है।

व्यक्ति की मनोवृत्ति है,

दूसरों की अपेक्षा स्वयं में अधिक लीन रहने की।

दान पुण्य तक अपनी संतुष्टी और आनन्द से प्रेरित होता है।

मानव स्वभाव है,

दूसरों की अपेक्षा खुद की अधिक चिंता करने का।

हमारा हर कार्य,

क्यों स्वार्थ और अपनी भलाई से नियंत्रित होता है।

स्वार्थ में न शर्मिंदगी न क्षमा की आवश्यकता है।

परोपकार निहित हो स्वार्थ में भी,

बस इतनी सी अपेक्षा है।

इंसान बनने से किसने किसको रोका है।

ये स्वार्थ, इंसानियत और रिश्ता है।

ये स्वार्थ का और इंसानियत का रिश्ता है।

रिश्ता सुरक्षा और संस्कारों की ढाल है,

इसे शस्त्र न बनाओ।

जब उन्हीं पर आंच आए तो,

दिव्यास्त्र बन जाओ किसने रोका है।

हर्ष शेखावत