“सम्बन्ध” नैतिक या अनैतिक

अक्सर जब सम्बन्ध का जिक्र हो, तो रिश्ते, नाते, लेनदेन नजदीकियां और न जाने कितने इसी तरह के भिन्न भिन्न विचार मस्तिष्क में आते हैं।

और फिर सवाल उठता है, इनमें नैतिकता का।

सम्बन्ध कभी अनैतिक नहीं होता यह जानना जरूरी है।

इसके लिये सबसे पहले ये समझने का प्रयास करते हैं कि सम्बन्ध है क्या?

सम्बन्ध शब्द बना है सम (उपसर्ग) और बन्ध(धातु) से।
“सम” का अर्थ है सम्यक अर्थात परिपूर्ण अथवा पूर्ण(100%),

और “बन्ध” से अभिप्राय है बंधन। अर्थात सम्बन्ध का अर्थ हुआ सम्पूर्ण(/ चहुंओर/हरप्रकार)100% बन्धन।दूसरे शब्दों में परिपूर्ण और पूर्ण बंधन।

जो हमारे और ईश्वर के बीच तो है मगर किसी अन्य के बीच सम्भव है भी तो बहुत कठिन। तो अनैतिकता का सवाल ही क्यों।

माता पिता, भाई बहन, पत्नी व अन्य रिश्ते नातों की बात करें तो इनमें से कोई भी न परिपूर्ण है और न ही पूर्ण।
दोस्ती भी अपवाद नहीं तो मालिक नौकर, क्रेता विक्रेता, उत्पाद उपभोक्ता में कैसा सम्बन्ध?

अधिकतर रिश्ते नाते स्वार्थ के है।
जो स्वार्थ के नहीं भी है उनकी आयु अनिश्चित है क्षण का भी भरोसा नहीं। हर कोई अपने कर्म के हिसाब से गति पाएगा।

इसलिए अनैतिक छोड़ नैतिक रिश्ते नातों को भी सम्बन्ध कहना गलत होगा।
क्योंकि व बंधन रिश्ता जो स्वार्थ वश परिपूर्ण नहीं, और अपनी अनिश्चित या क्षणिक आयु के नाते पूर्ण नहीं।

सम्बन्ध के अलावा कुछ भी हो सकता है पर संबंध नहीं।

जबकि ईश्वर मात-पिता भाई-बहन सखा बन सदैव बिना भेद किये कर्मफल प्रदान करता है।
आप नास्तिक हो या आस्तिक, ईश्वर जल वायु, प्रकाश सबको समान रूप से इसी धरती पर एकसमान जीवनप्रियंत उपलब्ध करता है।

इसीलिए कहते है,
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम् देव देव।

यहाँ गौर करने वाली बात है, तुम ही हो।
यहाँ “ही” से अभिप्राय दूजा कोई नहीं से है।

इससे ये स्पष्ट होता है कि सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ परमात्मा और उसकी श्रष्टी के बीच है जो नैतिक है।

इस लिए सम्बन्ध को छोड़ कुछ भी नैतिक या अनैतिक हो सकता है।
मगर ईश्वर से सम्बन्ध सिर्फ नैतिक होता है, अनैतिक नहीं।

हर्ष शेखावत।

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